बी ए - एम ए >> एम ए सेमेस्टर-1 हिन्दी प्रथम प्रश्नपत्र - हिन्दी काव्य का इतिहास एम ए सेमेस्टर-1 हिन्दी प्रथम प्रश्नपत्र - हिन्दी काव्य का इतिहाससरल प्रश्नोत्तर समूह
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हिन्दी काव्य का इतिहास
प्रश्न- रासो शब्द की व्युत्पत्ति बताते हुए रासो काव्य परम्परा की विवेचना कीजिए।
उत्तर -
रासो शब्द की व्युत्पत्ति
रासो शब्द की व्युत्पत्ति के सम्बन्ध में विभिन्न विद्वानों ने अपने-अपने मत दिये हैं। फ्रांसीसी इतिहासकार गार्सा -द-तासी के अनुसार इस शब्द की व्युत्पत्ति राजसूय शब्द से हुई है किन्तु इस तर्क के प्रमाण के रूप में उन्होंने कुछ भी नहीं दिया है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने बीसलदेव रासो में प्रयुक्त रामायण शब्द से रास या रासो की व्युत्पत्ति सिद्ध की है किन्तु अब ये दोनों ही प्रयास अमान्य समझे जाते हैं। नरोत्तम स्वामी ने रासो शब्द की व्युत्पत्ति रसिक शब्द से मानी है, जिसका अर्थ प्राचीन राजस्थानी भाषा के अनुसार कथा काव्य होता है। इसी शब्द के रूप क्रमशः रासऊ और रासो मिलते हैं। ब्रजभाषा में रासो शब्द झगड़े के अर्थ में प्रचलित है। आचार्य चन्द्रावली पाण्डेय रासो शब्द की उत्पत्ति शुद्ध संस्कृत रूप रासक से मानते हैं। संस्कृत साहित्य में रासक की गणना रूपक अथवा अरूपक में हुई है। पाण्डेय जी ने इस मत के समर्थन में पृथ्वीराज रासो के प्रारम्भ करने के ढंग का हवाला दिया। इस ग्रन्थ का प्रारम्भ नट अथवा नटी की भांति कविचन्द अथवा पत्नी को लेकर हुआ है। आगे चलकर भी ग्रन्थ के रूपक का रूप बना रहता है। डॉ. दशरथ शर्मा, डॉ. माता प्रसाद गुप्त तथा डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी प्रभृत्ति विद्वानों ने संस्कृत के रासक' से ही 'रास' का सम्बन्ध सिद्ध किया है। डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है, "रासक वस्तुतः एक विशेष प्रकार का खेल या मनोरंजन है। रास में वही भाव है। सट्टक भी ऐसा ही शब्द है। लोक में इन मनोरंजन विनोदों को देखकर संस्कृत के नाट्यशास्त्रियों ने इन्हें रूपकों और उपरूपकों में स्थान दिया था। इन शब्दों का अर्थ विशेष प्रकार के विनोद और मनोरंजन थे। परवर्ती राजस्थानी चरित काव्यों में चरित नायक के नाम के साथ 'रासो' शब्द लेकर ग्रन्थ लिखना रूढ़ हो गया था।
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो गया है कि 'रासो' आदिकालीन साहित्य में एक महत्वपूर्ण काव्य रूप है। इससे जैन अपभ्रंश साहित्य के चरित काव्यों की परम्परा से रचे जाने वाले चरित काव्यों की सूचना मिलती है। द्विवेदी जी के अनुसार इसका लोक में प्रचलन देखकर नाट्यशास्त्रियों ने इनकी गणना रूपकों और उपरूपकों में की है। आदिकाल में निश्चय रूप से 'रासो' राजस्थानी भाषा में रचित चारण कवियों के चरित काव्यों का सूचक है। 'रासो' नामधारी चरित काव्यों की सामान्य विशेषता ऐसी घटनाओं का वर्णन है जिनके ऐतिहासिक महत्व हो तथा जिसमें कथा चमत्कार एवं शौर्यपूर्ण महत्त कार्यों की कल्पना से अतिरंजित होकर बड़ी भव्यता का प्रदर्शन करती हो।
रासो काव्य परम्परा - हिन्दी में जैन धर्म के आश्रय में एक विशिष्ट काव्य परम्परा का विकास हुआ था, जिसे 'जैन रास काव्य परम्परा की संज्ञा दी गयी है। इस परम्परा की लोकप्रियता एवं प्रचार को देखकर अनेक जैनेतर कवियों का भी ध्यान इनकी ओर आकृष्ट हुआ, जिन्होंने इसे नया मोड़ दिया। इन कवियों में से अधिकांश राज्याश्रित थे, जिन्होंने तीर्थकरों एवं महापुरुषों के स्थान पर अपने आश्रयदाताओं के गुण-गान के लक्ष्य को लेकर काव्य रचना की। उनके सामने धर्म प्रचार का उद्देश्य न होकर राजाओं को प्रसन्न करना ही उद्देश्य था। इस परम्परा से सम्बन्धित ग्रन्थ निम्नवत् है। कुछ लोग केवल बीसलदेव रासो और 'पृथ्वीराज रासो के अलावा अन्य वीरगाथात्मक रासो काव्यों को आदिकाल का काव्य नहीं मानते। सत्य यह है कि रासो काव्यों की रचना आदिकाल में ही हुई थी। उनमें जो अंश उत्तरवर्ती राजाओं से सम्बन्धित है, वे प्रक्षित्त हैं। इसी मान्यता के आधार पर हम रासो ग्रन्थों की परम्परा को यहाँ चित्रित कर रहे हैं।
(1) खुमान रासो - इसमे नवीं शती के चित्तौड़ आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इसे नवीं शताब्दी की रचना माना है, क्योंकि नरेश खुमान के युद्धों का चित्रण है, इस ग्रन्थ में सत्रहवीं शताब्दी के चित्तौड़ नरेश राजसिंह का वर्णन मिलता है, इसलिए लोग इसे आदिकाल की रचना नहीं मानते। वास्तविकता यह है कि यह ग्रन्थ नवीं शताब्दी में ही लिखा गया था क्योंकि इसकी भाषा 'आरम्भिक हिन्दी' ही है। अधिकांश विद्वानों ने नवीं शती के खुमाण नरेश के समकालीन दलपति विजय को इस ग्रन्थ का रचयिता माना है।
इस ग्रन्थ की प्रामाणिक हस्तलिखित प्रति पूना के संग्रहालय में सुरक्षित है। यह पाँच हजार छन्दों का विशाल काव्य ग्रन्थ है। राजाओं के युद्धों और विवाहों के सरल वर्णनों से इस काव्य की भावभूमि का विस्तार हुआ है। सन्दर्भानुसार नायिका भेद, षट्ऋतु आदि के चित्रण भी मिलते हैं। राजाओं की प्रशंसा काव्य का मुख्य प्रतिपाद्य है। वीर रस के साथ-साथ श्रृंगार की धारा भी आदि से अन्त तक चली है। दोहा, सवैया, कवित्त आदि छन्द प्रयुक्त हुए हैं तथा इसकी भाषा राजस्थानी है।
(2) बीसलदेव रासो - इस ग्रन्थ की रचना नरपति नाल्ह कवि ने 1155 ई. में की थी। कुछ वृन्त संग्रहकर्ताओ ने इस ग्रन्थ को भी आदिकाल की रचना नहीं माना। यह सम्भव है कि इसमें भी कुछ परिवर्तन होते रहे हों, किन्तु उससे इसकी प्राचीनता समाप्त नहीं हो जाती। नवीन खोजों के. द्वारा इस समय इस ग्रन्थ की एक प्रति मिली है जिससे इस काव्य का रचनाकाल 1016 ई. सिद्ध होता है। उसमें यह पंक्ति मिलती है "संवत् सहस तिहत्तर जानि, नाल्ह कबीसर रससीय वाणि"।
'बीसलदेव रासो - हिन्दी के आदिकाल की एक श्रेष्ठ काव्य-कृति है। इसमें भोज परमार की पुत्री राजमती और अजमेर के चौहान राजा बीसलदेव तृतीय के विवाह, वियोग एवं पुनर्मिलन की कथा सरस शैली में प्रस्तुत की गयी है। संदेश रासक' के समान ही 'बीसलदेव रासो' की भावभूमि प्रेम की निश्छल अभिव्यक्ति से सरस है 'मेघदूत' और 'संदेश रासक की संदेश परम्परा भी इसमें मिलती है। शृंगार के संयोग एवं वियोग पक्षों के अत्यन्त मार्मिक चित्र कवि ने प्रस्तुत किये हैं। कुल मिलाकर हम यह कह सकते हैं कि रासो ग्रन्थों में यह ग्रन्थ अपना महत्वपूर्ण स्थान रखता है।
(3) हम्मीर रासो - प्राकृत पैंगलम्' में इस काव्य के कुछ छन्द मिले थे और उन्हीं के आधार पर आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इसके अस्तित्व की कल्पना की थी, उनका अनुमान था कि इसमें हम्मीर और अलाउद्दीन के युद्धों का वर्णन तथा हम्मीर की प्रशंसा चित्रित होगी। किन्तु राहुल सांकृत्यायन ने इस ग्रन्थ को जज्वल नायक किसी कवि की रचना घोषित किया है।
डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने भी इस ग्रन्थ के अस्तित्व को स्वीकार नहीं किया है। अतः शार्ङ्गधर कृत इस 'हम्मीर रासो का अस्तित्व संकट में पड़ा हुआ है। अभी तक इसकी कोई प्रति उपलब्ध नहीं हो सकी है।
(4) परमाल रासो - उत्तर प्रदेश में 'आल्हखण्ड' के नाम से जो काव्य प्रचलित है, वही 'परमाल रासो' के मूल रूप का विकसित रूप माना जाता है। यह रासो लोक-गेय काव्य था, अतः इसके मूल की सुरक्षा नहीं हो सकी। इसमे अनेक अंश बाद में जोड़े गये हैं तथा अनेक अंशों में वर्णन और भाषा सम्बन्धी परिवर्तन किये गये हैं। धीरे-धीरे 'आल्हा' लोकगीत की एक शैली ही बन गया है।
'परमाल रासो' का रचयिता जगनिक नामक कवि माना जाता है, जो महोबा के राजा परमर्दिदेव का आश्रित था। उसने इस काव्य में आल्हा और ऊदल नामक दो वीर सरदारों की वीरतापूर्ण लड़ाइयों का वर्णन किया है। इसी आधार पर इसका रचनाकाल तेरहवीं शती का आरम्भ माना जाता है। इसमे वीर भावना का जितना प्रौढ़ रूप मिलता है उतना अन्यत्र दुर्लभ है। आज भी जब इसे गायक संगीत के साथ गाते हैं, तब दुर्लभों में भी तलवार चलाने की स्फूर्ति आ जाती है।
भाषा की दृष्टि से इस काव्य का मूल्यांकन कर पाना संभव नहीं, क्योंकि मूल रूप का कोई भी अंश अब शुद्ध रूप में सुरक्षित नहीं है। छन्द - विधान की दृष्टि से इस काव्य की एक विशेष शैली है, जिसे आल्ह शैली कहना ही उचित है। एक उदाहरण प्रस्तुत है -
बरस अठारह क्षत्रिय जीवै, आगे जीवन को धिक्कार।'
(5) पृथ्वीराज रासो - यह तो निर्विवाद सत्य है कि रासो काव्य परम्परा में पृथ्वीराज रासो का महत्वपूर्ण स्थान है। 69 सर्गों की यह विशाल रचना कई दृष्टियों से विवादग्रस्त है। इस विशाल ग्रन्थ के रचयिता चन्दबरदायी हैं। दुर्भाग्य से यह ग्रन्थ साहित्य मर्मज्ञों के हाथ में न पड़कर इतिहास का तथांकन करने वाले महारथियों के हाथ में पड़ गया। परिणामतः इसका साहित्यिक मूल्यांकन न होकर ऐतिहासिक पोष्टमार्टम होने लगा। आचार्य शुक्ल ने इसे हिन्दी का प्रथम महाकाव्य माना तो स्वर्गीय गुलाब राय ने विकासशील महाकाव्य। मोतीलाल मनेरिया ने इसमें महाकाव्य की भव्यता और दृश्य काव्य की सजीवता देखी है। डॉ. विपिन बिहारी ने कतिपय त्रुटियों के होते हुए भी हिन्दी के इस प्रबन्ध काव्य को निर्विवाद रूप से महाकाव्य सिद्ध करने मे कुछ उठा नहीं रखा है। रासो की महत्ता उसके साहित्यिक कलेवर में छिपी है न कि उसके ऐतिहासिक समर्थन में इसे महाकाव्य न मानने वाले विद्वानों में श्यामसुन्दर दास, उदय नारायण तिवारी आदि हैं। संक्षेपतः हम कह सकते हैं कि हिन्दी साहित्य के आदिकाल में रासो काव्यों की एक दीर्घ परम्परा रही है। जितने भी रासो लिखे गये हैं वे किसी न किसी अर्थ में विशिष्ट हैं। प्रत्येक का अपना महत्व है और इसी कारण यह कहना आसान हो जाता है कि रासो साहित्य न केवल प्रचुर एवं विशिष्ट है अपितु उसकी एक स्पष्ट परम्परा ' भी रही है जिसमें पृथ्वीराज रासो का स्थान सर्वोपरि है।
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- प्रश्न- इतिहास क्या है? इतिहास की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- हिन्दी साहित्य का आरम्भ आप कब से मानते हैं और क्यों?
- प्रश्न- इतिहास दर्शन और साहित्येतिहास का संक्षेप में विश्लेषण कीजिए।
- प्रश्न- साहित्य के इतिहास के महत्व की समीक्षा कीजिए।
- प्रश्न- साहित्य के इतिहास के महत्व पर संक्षिप्त प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- साहित्य के इतिहास के सामान्य सिद्धान्त का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
- प्रश्न- साहित्य के इतिहास दर्शन पर भारतीय एवं पाश्चात्य दृष्टिकोण का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
- प्रश्न- हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन की परम्परा का विश्लेषण कीजिए।
- प्रश्न- हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन की परम्परा का संक्षेप में परिचय देते हुए आचार्य शुक्ल के इतिहास लेखन में योगदान की समीक्षा कीजिए।
- प्रश्न- हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन के आधार पर एक विस्तृत निबन्ध लिखिए।
- प्रश्न- इतिहास लेखन की समस्याओं के परिप्रेक्ष्य में हिन्दी साहित्य इतिहास लेखन की समस्या का वर्णन कीजिए।
- प्रश्न- हिन्दी साहित्य इतिहास लेखन की पद्धतियों पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
- प्रश्न- सर जार्ज ग्रियर्सन के साहित्य के इतिहास लेखन पर संक्षिप्त चर्चा कीजिए।
- प्रश्न- नागरी प्रचारिणी सभा काशी द्वारा 16 खंडों में प्रकाशित हिन्दी साहित्य के वृहत इतिहास पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
- प्रश्न- हिन्दी भाषा और साहित्य के प्रारम्भिक तिथि की समस्या पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- साहित्यकारों के चयन एवं उनके जीवन वृत्त की समस्या का इतिहास लेखन पर पड़ने वाले प्रभाव का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
- प्रश्न- हिन्दी साहित्येतिहास काल विभाजन एवं नामकरण की समस्या का वर्णन कीजिए।
- प्रश्न- हिन्दी साहित्य के इतिहास का काल विभाजन आप किस आधार पर करेंगे? आचार्य शुक्ल ने हिन्दी साहित्य के इतिहास का जो विभाजन किया है क्या आप उससे सहमत हैं? तर्कपूर्ण उत्तर दीजिए।
- प्रश्न- हिन्दी साहित्य के इतिहास में काल सीमा सम्बन्धी मतभेदों का विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिए।
- प्रश्न- काल विभाजन की उपयोगिता पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
- प्रश्न- काल विभाजन की प्रचलित पद्धतियों को संक्षेप में लिखिए।
- प्रश्न- रासो काव्य परम्परा में पृथ्वीराज रासो का स्थान निर्धारित कीजिए।
- प्रश्न- रासो शब्द की व्युत्पत्ति बताते हुए रासो काव्य परम्परा की विवेचना कीजिए।
- प्रश्न- निम्नलिखित पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए - (1) परमाल रासो (3) बीसलदेव रासो (2) खुमान रासो (4) पृथ्वीराज रासो
- प्रश्न- रासो ग्रन्थ की प्रामाणिकता पर संक्षिप्त प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- विद्यापति भक्त कवि है या शृंगारी? पक्ष अथवा विपक्ष में तर्क दीजिए।
- प्रश्न- "विद्यापति हिन्दी परम्परा के कवि है, किसी अन्य भाषा के नहीं।' इस कथन की पुष्टि करते हुए उनकी काव्य भाषा का विश्लेषण कीजिए।
- प्रश्न- विद्यापति का जीवन-परिचय देते हुए उनकी रचनाओं पर संक्षिप्त प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- लोक गायक जगनिक पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- अमीर खुसरो के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- अमीर खुसरो की कविताओं में व्यक्त राष्ट्र-प्रेम की भावना लोक तत्व और काव्य सौष्ठव पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- चंदबरदायी का जीवन परिचय लिखिए।
- प्रश्न- अमीर खुसरो का संक्षित परिचय देते हुए उनके काव्य की विशेषताओं एवं पहेलियों का उदाहरण प्रस्तुत कीजिए।
- प्रश्न- अमीर खुसरो सूफी संत थे। इस आधार पर उनके व्यक्तित्व के विषय में आप क्या जानते हैं?
- प्रश्न- अमीर खुसरो के काल में भाषा का क्या स्वरूप था?
- प्रश्न- विद्यापति की भक्ति भावना का विवेचन कीजिए।
- प्रश्न- हिन्दी साहित्य की भक्तिकालीन परिस्थितियों की विवेचना कीजिए।
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- प्रश्न- समकालीन कविता का संक्षिप्त परिचय दीजिए।